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मानवता का कर्ज / रमेश नीलकमल

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आसान किश्तों में बांटकर

जैसे चुक जाता है ऋण

वैसे नहीं चुकता है स्नेह

आसान किश्तों में बांटकर भी

सारा सुख अपना होता है

स्नेह बांटने से

और टुकड़ा-टुकड़ा स्नेह

भले ही बँटा हुआ लगे

बँटा नहीं होता

जैसे अपनी धरती

बावजूद कई-कई सीमा-रेखाओं के

एक है

द्वीपों-महाद्वीपों में बँटकर भी

तभी न परमाणु परीक्षणों से

थराथरा उठती है पूरी की पूरी पृथ्वी

और फिर चढ़ जाता है हमपर ऋण

पूरी मानवता का

जिसे आसान किश्तों में भी चुकाना

हम सब का फर्ज हो जाता है

फिर आश्चर्यजनक बात यह कि

मानवता का कर्ज जितना ही चुकाओ

चढ़ता ही जाता है।

4.6.1998