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पर्वत के पार भी / कुमार रवींद्र

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पर्वत के पार भी लोग हैं
जैसे इस ओर हैं ।
वे पूछते हैं जैसे हम पूछते हैं रोज़
घाटी की हथेली में काँपता नया चाँद
भोर के पार कहाँ जाता है ।
साँझ के कफ़न में लिपटा
एक कोई क्षण
चोटी पर चढ़कर देखता है
आकाश को ठहरा हुआ
किंतु नीचे के लोग मानते नहीं -
अपनी आँखों के घेरे में सिमटा
मृत्यु का क्षण वे कैसे नकार दें ।
पच्छिम की ओर जातीं सारी गतिविधियाँ
कितनी मौन हैं
कितनी निरुत्तर
जो डूब गये हैं उनके देश में
बस कुछ ठहरी हुई ध्वनियाँ हैं ।
 
अंकित सीमाओं के पार की मरुभूमि में
घटनाएँ दिशाहीन हैं ।
नये चाँद की कटार ने
पिछले सब बंधन काट दिए हैं ।
सब कुछ समाप्त हो चुका है -
बस एक विस्तार शेष है ।