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साँझ की नदी के किनारे / कुमार रवींद्र
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साँझ की नदी के किनारे खड़ा
वह अकेला पेड़
कैसा सुनसान हो गया है -
अब उसकी टहनियों से झरता
सूरज का रक्त
दिशाओं के तट पर जम गया है ।
घायल सूरज को ले जाती
पच्छिम की नौका
उस पेड़ की लटकी शाख के नीचे जैसे ही पहुँची
वैसे ही रास्तों पर बढ़ते पाँव थम गए
और अँधेरा निर्वस्त्र हो गया ।
चिता होते उस क्षण में
अचानक फूल झर गए ।
मुझे तुम जहाँ ले जाना चाहते हो
वहाँ के रास्ते बंद हो चुके हैं ।
आओ, हम इस निर्जन नदी के किनारे
अपनी संझा को डुबो दें
और इस अकेली बेला की तरह ही
अनाम हो जायें ।
साँझ की बेला द्वीप होने की नहीं है -
नावें भी लंगर बाँध रही हैं -
आओ, किनारे ही टिक लें
और रात-भर महासागर को लहराते सुनें ।