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काँपती लौ का सुर / कुमार रवींद्र

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मैं एक टूटे क्षण की दहलीज पर खड़ा
उस मकान को देख रहा हूँ
जो मेरा घर था ।
समय ने कितना बदल दिया है इसे ।
पीछे मुड़ने की गुंजाइश नहीं है
वरना मैं इस मकान के बचपन में
रहना चाहता हूँ ।
इसके बचपन और यौवन को बीतते मैंने देखा है -
क्षण-क्षण एक-दूसरे के बगलगीर होते गए
और मैं पहचान भी नहीं पाया
ये मुझे बिता चले हैं ।
 
तूने कभी वह रोशनी देखी है
जो अँधेरे के लिहाफ़ ओढ़ काँपती है -
वही रोशनी इस मकान में है;
काँपती लौ का आख़िरी सुर
इसके गलियारों में गूँजता है
जो रोशनी को
मौत का पैगाम देता है ।
 
मैं दहलीज़ पर खड़ा हूँ
इसलिए देख पा रहा हूँ
मेरा मकान ढह रहा है -
इसी नींव पर नई रोशनी का घर बनेगा ।