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फ़ूल / नवनीत पाण्डे

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माना-
मैं नहीं खिला तुम्हारी तरह बाग में
न ही पला, बड़ा हुआ
नक्काशीदार गमलों की
सुगंध वाली माटी में
फ़िर भी
एक बार
सिर्फ़ एक बार
छू कर तो देखो
मैं भी हूं तुम्हारे जैसा
एक ही है
मेरी- तुम्हारी
खुश्बू और जाति
जंगल का ही सही
हूं तो मैं भी फ़ूल