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टँगे हुए जाल / कुमार रवींद्र
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रेत बहुत गहरे हैं
छिछले हैं ताल
ताक रहे सन्नाटे फावड़े-कुदाल
पपड़ाए चेहरों पर
टिकी हुई भूख
गहराते मेंहों की
साँस गई सूख
कौन कहे कितने हैं पथराए ताल
आँगन को अगियाती
रोज़ कड़ी धूप
पानी हैं माँग रहे
बौराए कूप
दिन कैसे गुजरेंगे - पूछते पुआल
दर्द ओढ़ सोते हैं
मछुआरे गाँव
झीलों से कहाँ गए
मछली के ठाँव
सोच रहे खूँटी पर टँगे हुए जाल