भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सागर हमें नहला रहा / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:50, 22 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=और...हमने सन्धियाँ कीं / क…)
और...
फिर सागर हमें नहला रहा
डूबते ही जा रहे हम
इस महाजल में अकेले
दूर दिखते पोत ने हैं
सिंधु के आघात झेले
जल हमारे दर्द को सहला रहा है
हाँ, इसी जल में खिला
लीलाकमल था युगों पहले
सुना, तब थे सूर्य-धरती
चाँद-तारे सब सुनहले
जल हमें उस स्वप्न से बहला रहा है
सागरपुत्रों के मिले कंकाल
हमको हर लहर में
दिखे हमको बुझे सूरज तैरते
डूबे शहर में
दृश्य वह अब भी हमें दहला रहा है