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इस कनकौव्वे की उड़ान को / कुमार रवींद्र

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भाई, मानो !
थोड़ी देर खुला रहने दो आसमान को

पता तो रहे इन बच्चों को
सूरज कहाँ रात-भर सोता
कहाँ सितारों की महफ़िल है
कहाँ चाँद का जलसा होता

चारों ओर
नहीं फैलाओ अपने इस ऊँचे मचान को

माना, गुंबद-मीनारों से
महानगर की शोभा बढती
और तरक्की नए वक़्त में
सीढ़ी-दर-सीढ़ी ही चढ़ती

कहीं-कहीं
आदमक़द ही रहने दो सपनों की उठान को

पाँव-तले धरती का होना
बहुत ज़रूरी - यह भी जानो
कहाँ ख़त्म होगी चढ़ाई यह
पूछ रही है थककर बानो

देख रहे
बच्चे ख़ुश होकर इस कनकौव्वे की उड़ान को