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सुनो साधो / कुमार रवींद्र
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सुनो साधो !
इस शिवाले में
जल रहा अब भी दिया है
उधर बैठा
राख में जोगी-जती है
इधर कुलदेवी हमारी
जागती है
अमृत सिरजा
देवता ने कल
हाँ, हलाहल भी पिया है
इधर पावन नदी
बड़-पीपल उधर हैं
आँख में ज़िंदा हमारी
भोर-संझा-दोपहर हैं
संग हमने
इन सभी के
उम्र का हर पल जिया है
उधर पर्वत के सिरे पर
घिर रहीं ऊदी घटाएँ
मेघ की बारादरी में
फिर रहीं भीगी हवाएँ
रामगिरी से
यक्ष है लौटा
हँस रही उसकी प्रिया है