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आन पानी की / कुमार रवींद्र

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आँख में हो
या नदी में
बात तो है वही पानी की

आँसुओं की एक मीठी झील
भीतर हर किसी के
गूँज आती आरती की
घाट से पावन नदी के

धर्मग्रन्थों ने सभी
महिमा-कथा है कही पानी की

उगीं सागर-कोख से थीं-
रात भर बरसीं घटाएँ
हुई सोंधी गंध माटी की
और भीगीं ऋतु-हवाएँ

रच रही रोमांस
धरती का
धार जो है बही पानी की

आग के तूफ़ान आए
शुरू से ही इस सदी के
राख-होते शहर ने पूछे
प्रश्न फिर नेकी-बदी के

वक़्त ऐसे आए
पहले भी
आन फिर भी रही पानी की