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हमने बुने सुनहरे बादल / कुमार रवींद्र

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बरस-दर-बरस
हमने बुने सुनहरे बादल

इन्द्रधनुष की पगडंडी पर
चले उम्र भर
गुज़रे चीड़ वनों
केसर घाटी से होकर

पोखर-ताल-नदी में उतरे
               और हुए जल

वन-कन्याओं के कोरस का
गीत हुए हम
और कभी आँखों से उनकी
बरसे झमझम

हाँ, परियों के घर की भी
             खड़काई साँकल

सूरज के सँग
किसिम-किसिम की ख़बरें बाँचीं
सपनों से भी बातें कीं कुछ
झूठी-साँची

ताकि रहें ये साँसें
            थोड़ी-थोड़ी पाग़ल