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हुआ अचरज महानगरी में / कुमार रवींद्र

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हुआ अचरज
एक बच्चे ने हमें आवाज़ दी कल
                        महानगरी में

खड़ा छज्जे पर
हर किसी को दे रहा था
वह गुहारें
लगा हमको
तपे रेगिस्तान में
जैसे पड़ीं ठंडी फुहारें

और पहली बार
आया था हमारी आँख में जल
                       महानगरी में

हँसा बच्चा
फूल सारे खिल गए थे
सामने के पेड़ पर
कोई सपना गुनगुनाया
कहीं भीतर
राग आदिम छेड़कर

नया अनुभव
किसी बच्चे ने कहा था हमें 'अंकल'
                        महानगरी में

रहा पल भर सिर्फ़ जादू
दूसरे पल
हुआ बच्चा अज़नबी था
'सभी अपने'
गए-युग का मंत्र है यह
नए युग का वह नबी है

लौट आए
वही पहचाने हुए शोरगुल-हलचल
                      महानगरी में