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और ... हमने संधियाँ कीं. / कुमार रवींद्र
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और...
हमने संधियाँ कीं ज़िंदगी भर
देह की जादूगरी से
संधि पहली थी हमारी
वह सुखद थी
तब हमारी देह भी तो थी कुँआरी
आज उसका भार है
अपनी थकी इन अस्थियों पर
और फिर परिचय हुआ था
वक़्त की बाज़ीगरी से
जो कभी ख़ुश नहीं होती
उस अपाहिज किन्नरी से
हाँ, उसी के संग
हमने थे बनाए रेत के घर
उम्र भर हमने निबाही
संधियों की है ग़ुलामी
रखी गिरवी साँस हमने
हुए सपने भी हरामी
वक़्त बीता
जिन्होंने पूजा - उन्हीं की खाई ठोकर