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एक लड़की नदी-तीरे / कुमार रवींद्र

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कल सुबह थी
दिखी हमको एक लड़की नदी-तीरे

वह नदी की रेत पर
कुछ लिख रही थी
उँगलियों से
बीच में हँसकर अचानक
पूछती थी सीपियों से

नाम बूझो
उस हवा का जो बजाती है मँजीरे

वही लड़की
हाट में हमको दिखी थी
हाँ, शहर में
आई थी शायद
सुबह की बात कहने
दोपहर में

लग रहा था
थक गई थी - चल रही थी बहुत धीरे

रात-बीते वह दिखी थी
काँचघर की सीढ़ियों पर
आँख उसकी रो रही थी
कहीं गहरे बहुत भीतर

देख सूरज
हँसी लड़की - मगर बिखरे नहीं हीरे