भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नदी / राकेश प्रियदर्शी
Kavita Kosh से
योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:02, 24 मई 2011 का अवतरण
(1)
वह नदी की आंखों में डूबकर
सागर की गहराई नापना चाहता था
और आसमान की अतल ऊंचाइयों में
कल्पना के परों से उड़ान भरना चाहता था,
पर वह नदी तो कब से सूखी पड़ी थी,
बालू, पत्थर और रेत से भरी थी
(2)
वह कैसी नदी थी जिसमें स्वच्छ जल न था,
न धाराएं थीं, न प्रवाह दिखता था,
वहां सिर्फ आग ही आग थी
(3)
नदी थी तो दुःख का विस्तार था,
वहाँ पानी नहीं, हर तरफ हाहाकार था
(4)
नदी की आँखों में आंसुओं की धारा थी,
उसकी आंखों में भी आंसुओं की धारा थी,
एक धारा का दूसरे से इस तरह नाता था
कैसे कह दूं कि वहां जीवन न था