क्षितिज के उस पार / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
देखता हूँ 'क्षितिज के उस पार' जा कर
कहीं सफ़ेद अँधेरा
कहीं स्याह उजाला
खो दिया है दर्द ने एहसास अपना
करीबी इतनी कि
देख तक नहीं सकते
कोयला सुलग रहा है
अंगीठी जल रही है बदन में
भुने हुए अक्षर
काग़ज़ पर गिरते हैं जब
तो 'छन्' से आवाज़ आती है
गले में अटक जाता है
साँस का टुकड़ा
मेरी पलकें नोचता है कोई
फिर देखती है नंगी आँखें
'एक छिली हुई रूह'
बिल्कुल चाँद की तरह
सोचता हूँ सन्नाटा बुझा दूँ
बहने लगती है उंगलियाँ
बिखरने लगता है वजूद
सोच पिघलती है धुआं बनकर
सहसा सूख जाती है नींद की ज़मीन
रात की दीवार में दरार हो जैसे
फ्रेम खाली है अब तक
मुस्कराहट बाँझ हो गई
कुछ हर्फ़-सा नहीं मिलता
बहुत उदास हैं टूटे हुए नुक्ते
समय के माथे पर ज़ख्म-सा क्या है ?
जमने लगी है चोट की परत
चीखते हैं मुरझाये हुए मौसम
अभी बाकी है सम्बन्ध कोई
अब तो दिन रात यही करता हूँ
क्षितिज से जब भी लहू रिसता है
देखता हूँ 'क्षितिज के उस पार' जा कर।