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खेल ही तो है... / प्रतिभा कटियार
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हर मौसम से
पतझर की मानिंद
झरता अवसाद
मद्धम-मद्धम...
सन्नाटा
चबाते-चबाते
बेस्वाद हो चुकी ज़िदगी ।
दूर-दूर तक पसरे
एकांत के सेहरा में
किसी बंजारन की तरह
भटकते-भटकते,
अपनी ही साँसों की आवाज़
से घबराकर
किसी तरह पीछा छुड़ाना
फ़ुरसत से ।
व्यस्तताओं से,
मुस्कुराहटों से,
दुखों को रौंदने की कोशिश
खेल ही तो है...