भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुख का होना / प्रतिभा कटियार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:18, 26 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा कटियार }} {{KKCatKavita‎}} <poem> दुख जब पसारे बाँहें …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुख जब पसारे बाँहें
तो घबराना नहीं,
मुस्कुराना
सोचना कि जीवन ने
बिसारा नहीं तुम्हें,
अपनाया है ।
दुख का होना
है जीवन का होना
हमेशा कहता है दुख
कि लड़ो मुझसे,
जीतो मुझे ।

वो जगाता है हमारे भीतर
विद्रोह का भाव
सजाता है ढेरों उम्मीदें
कि जब हरा लेंगे दुख को
तो बैठेंगे सुख की छाँव तले
दुख हमारे भीतर
हमें टटोलता है
खंगालता है हमारा
समूचा व्यक्तित्व
ढूँढता है हमारे भीतर की
संभावनाएँ
दुख कभी नहीं आता
खाली हाथ ।
 
हमेशा लेकर आता है
ढेर सारी उम्मीदों की सौगात
लड़ने का, जूझने का माद्दा
अग्रसर करता है हमें
जीवन की ओर
लगातार हमारे भीतर
भरता है आन्दोलन

दुख कभी खाली हाथ नहीं जाता
हमेशा देकर जाता है
जीत का अहसास
ख़ुशी कि हमने परास्त किया उसे
कि जाना अपने भीतर की
ऊर्जा को
कि हम भी पार कर सकते हैं
अवसाद की गहरी वैतरणी
और गहन काली रात के आकाश पर
उगा सकते हैं
उम्मीद का चाँद
दुख का होना
दुखद नहीं है ।
सचमुच!

(रिल्के के कथन से प्रभावित। रिल्के कहते हैं कि अवसाद का हमारे जीवन में होना हमारा जीवन में होना है ।)