Last modified on 27 मई 2011, at 13:39

मुर्गा हुआ हलाल / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

मुर्गा हुआ हलाल

आँखों में चिंता के काँटे
कब तक बोयें हम

तीन कनौजी तेरह चूल्हे
बाप पूत में बैर
जिनको दूध पिलाया वो ही
काट रहe हैं पैर
आखिर ऐसे ठंडे रिश्ते
कब तक ढोयें हम

बोटी बोटी नुची देह की
बची न तन पर खाल
स्वाद दूसरो को देने में
मुर्गा हुआ हलाल
ऐसे बेदर्दी पर कब तक
नैन भिगोयें हम

मुँह पर खुशहाली की बातें
बाँसेां उछले दाम
नोन तेल लकडी गरीब का
जीना किये हराम
आसमान के नीचे आखिर
कब तक सोयें हम।