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भय / राजकिशोर राजन

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भेंट हुई, पिछले दिनों एक आदमी से
जिसे, हवा-पानी और धरती की तरह
ज़रूरत रहती थी, एक शत्रु की

जिस दिन से, कोई शत्रु
होने लगता, निर्बल-असहाय
या हार मानकर, बनने लगता मित्र
उसी दिन से, उसकी बेमज़ा होने लगती ज़िंदगी
और दूसरे ही दिन, सुबह से
ढूँढ़ने लगता वह किसी दूसरे शत्रु को

दुनिया भर को देता वह गालियाँ
कोसता भूत, भविष्य, वर्तमान को
उसके अनुसार कुछ लोग, कुछ चीज़ें ही बची हैं
जिनका किया जा सकता है एहतराम

उसे जानने वाले
कतराते, मुँह चुराते
निकल जाते अपनी राह
और वह खिलखिला कर हँसता, उन चूहों पर
जो आदमी की तरह थे
हाथ-पैर-नाक और चार पैरों वाले

जो मिलता उससे
याद करता, किसका मुँह देख निकला था घर से?
और उस बुरे दिन को याद कर
मिसरी की तरह मीठा हो
वही सुनता जो वह कहता
वही करता जो वह चाहता

लोगों का मानना है
वह आदमी
शत्रु है, अपना ही
और जो बन जाता इस समय में अपना शत्रु
उसे नहीं, किसी से दुनिया में भय!