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अख़बार की ज़मीन पर / अलका सिन्हा

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लिखी जा रही हैं कविताएं
अख़बार की ज़मीन पर।

फड़फड़ा रहे हैं कहानियों के पन्ने
पुस्तकालयों के रैक्स पर।

खींसें निपोर रहे हैं श्रोता
मंच के मसखरों पर।

बांग दे रहे हैं आलोचक
टी.वी. स्क्रीन पर।

मंत्रणा हो रही है विद्वान, मनीषियों में
कि बांझ हो गई है लेखनी।

उधर जंगल में नाच रहा है मोर !