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नाएग्रा: महसूसने के दो पल (1) / माया मृग

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(जलधारा)

नहीं पता,
धरती में कितना गहरा गड्ढा है,
या कि गहरे गड्ढे का ही
नाम धरती है
इसमें जितना भी उंडेलो,
भरता नहीं है।
जल तो करूणा है,
मन भरकर मनों-मन उंडेली
अकारण करूणा !
कितनी वेगवान !
दृष्टि की अपनी सीमा है,
असीम की गति को
नाप नहीं पाती,
स्थिर साटन के थान सी
खुल बिछ जाती है-
वेगवती धारा
गति भी जड़ लगती है।
इससे गढ़ते हैं हम
नये नियम,
अपनी सीमा को नहीं,
झरने की प्रबल वेग धारा की
स्थिरता को आंकते हैं
कैमरे की उल्टी आँख से
सीधा झांकते है,
सौंदर्य से उपजी वासना की
यही मुक्ति है
गतिशीलों को जड़ कहना
नये युग की सूक्ति है !