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गीतावली पद 81 से 90 तक /पृष्ठ 6

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(86)

सोचत जनक पोच पेच परि गई है।
जेरि कर कमल निहोरि कहैं कौसिकसों,
‘आयसु भौ रामको सो मेरे दुचितई है।1।

बान, जातु-धानपति, भूप दीप सतहूके,
लोकप बिलोकत पिनाक भूमि लई है।
 जोतिलिंग कथा सुनि जाको अंत पाये बिनु
आए बिधि हरि हारि सोई हाल भई है।2।

आपुही बिचारिये, निहारिए सभाकी गति,
 बेद -मरजाद मानौ हेतुबाद हई है।
इन्हके जितौहैं मन सोभा अधिकानी तन,
मुखनकी सुखमा सुखद सरसई है।3।
 
रावरो भरोसो बल, कै है कोऊ कियो छल,
कैंधों कुलको प्रभाव, कैंधों लरिकाई है?
कन्या, कल कीरति, बिजय बिस्वकी बटोरि,
कैंधों करतार इन्हहीको निर्मई है।4।

पनको न मोह, न बिसेष चिंता सीताहूकी,
लुनिहै पै सोई सोई जोई जेहि बई है।
रहै रघुनाथकी निकाई नीकी नीके नाथ,
हाथ सो तिहारे करतुति जाकी नई है’।5।

कहि ‘साधु साधु’ गाधि-सुवन सराहे राउ,
‘महाराज! जानि जिय ठीक भली दई है’।
हरषै लखन, हरषाने बिलखाने लोग,
तुलसी मुदित जाको राजा राम जई है।6।