भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हंसो और मर जाओ (कविता) / अशोक चक्रधर
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:59, 3 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक चक्रधर |संग्रह=हंसो और मर जाओ / अशोक चक्रधर }…)
हंसो, तो
बच्चों जैसी हंसी,
हंसो, तो
सच्चों जैसी हंसी।
इतना हंसो
कि तर जाओ,
हंसो
और मर जाओ।
हँसो और मर जाओ
चौथाई सदी पहले
लगभग रुदन-दिनों में
जिनपर
हम
हंसते-हंसते मर गए
उन
प्यारी बागेश्री को
समर-पति की ओर
स-समर्पित
श्वेत या श्याम
छटांक का ग्राम
धूम या धड़ाम
अविराम या जाम,
जैसा भी है
ये था उन दिनों का-
काम