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साज़िश में अध्यात्म / नील कमल

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अगली बार गाँव जाने तक
फिर कोई बगीचा
ऊसर की चादर ओढ़ चुका होगा

अन्न-प्रसवा माटी
रेत के तहों में दबी होगी

उनकी मैली-कुचैली
कथरियाँ धुली जा रही होंगी

अब बाग-बगीचे
गाँवों की पहचान कहाँ रह गए

मृतकों के घण्ट
किस पीपल से लटकाए जाएँगे
इस सोच में डूबा होगा गाँव

आम का वह आख़िरी पेड़
लिख रहा होगा अपना त्यागपत्र

वनस्पतियों का पलायन
ग्राम देवता के कानों में अलार्म-सा
बजता होगा

और सारा गाँव किसी साज़िश के तहत
अध्यात्म में डूबा होगा ।