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बेटी / नील कमल

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दरअसल गम थे इतने गहरे
कि रोने की रस्म हो न सकी
और डोली उठ गई ।

विदा हुई जो बेटी
लेती रही हिचकियाँ,
खड़ी रही जो माँ
भरती रही सिसकियाँ ।

वे जो दान-पुण्य के भागी
खोलकर बैठे बही-किताब,
किससे कितना लिया-दिया
होनी थीं बातें साफ ।

डोली उठ जाने के बाद
बेटी हुई कल की बात,
आज की थी जो बात
रिश्तों का जैसे उपाख्यान ।

एक ज़माना था वह भी
कि लोग-बाग रोते थे,
विलाप का भी था राग
रूदन में थी करूण-कथा ।

याद है उस उदास समय में
माँ, बेटी, बुआ, चाची,
दादी, काकी सब आपस में
करते थे रोने में संवाद ।

संवाद जो बजता था आँखों में
वह गीत से कम नहीं था,
भूले-बिसरे यादों की गाँठे खुलतीं
पानी में ही सब कड़वाहट धुलती ।

अब ज़ख़्म हुए गहरे
दर्द की दवा हो न सकी
और डोली उठ गई ।