शेरपा-5 / नील कमल
पहाड़ की उम्र से भी बड़ा
है शेरपा का दुख
बादलों की उम्र से भी छोटी
उसकी ख़ुशियाँ,
शेरपा के बारे में
सोचते हुए मैं अपनी पीठ पर
महसूस कर सकता हूँ
पृथ्वी का वजन और
अपने चेहरे पर गहराती
सर्पिल रेखाएँ
एक दुखती रीढ़ पर फेरते हुए
हाथ, मैं सोचता हूँ, आख़िर
कितनी चोट पड़ने पर
लोहे में आती है धार,
कितने बसंत देखने के बाद
घर से भागती है लड़की,
और यह कि उम्र के किस
पड़ाव पर विरोध में हाथ उठाना
सीखता है बच्चा,
छन्दहीन इस कविता समय में
दिन की शुरूआत
करता है शेरपा
सुबह की उतरी ताड़ी और
बासी मोमो के साथ
और दिन ढले
कुछ मोगरे के फूलों के साथ
लौटना चाहता है घर
सर्दी, गर्मी, बरसात, हर मौसम में
सैलानियों के इन्तज़ार में
खड़ा रहता है
किसी घुमावदार मोड़ पर
हर नये वज़न के साथ
कस लेता है कमर
पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण को
देता हुआ चुनौती
सही-सलामत ले जाता है
सैलानी को
उसके होटल वाले कमरे तक
जहाँ से पहाड़ दिखता है
खिड़की से बराबर
मैं नहीं गिन पाता
उसके चोट के निशान,
मैं नहीं गिन पाता
उसके बीते हुए बसंत,
मेरे लिए शेरपा की उम्र
सबसे बड़ा सवाल है ।