भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिकवा / इक़बाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।


क्यूं ज़ियाकार बनूं, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फर्दा न करूँ, महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुलबुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँ
हमनवां मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।

जुरत-आमोज़ मेरी ताब-ए-सुख़न है मुझको
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-बद-दहन है मुझको

है बजा शेवा-ए-तसलीम में, मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़बूर हैं हम
साज-ए-खामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
नाला आता है अगर लब पे, तो माज़ूर हैं हम

ऐ खुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
ख़ूगर-ए-हम्ज़ से थोड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।

थी तो मौज़ूद अज़ल से ही तेरी ज़ात-ए-कदील
फूल था ज़ेर-ए-चमन, पर न परेशान थी शमीम ।
शर्त-ए-इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीं ।
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम ।

हमको जमहीयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी
वरना उम्मत तेरी महबूब की दीवानी थी ।

हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
कहीं थे मस्जूद ते पत्थर, कहीं माबूद शजर
खूगर-ए-पैकर-ए-महसूद थे इंसा की नज़र
मानता फ़िर कोई अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर

तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा
कुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तेरा

बस रहे थे यहीं सल्जूक भी, तूरानी भी ।
अहल-ए-चीं चीन में, ईरान में सासानी भी ।
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी ।
इसी दुनिया में यहूदी भी थे, नसरानी भी ।

पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने ?
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किसने ?

थे हमीं एक तेरे मार का आराओं में ।
खुश्कियों में कभी लड़ते, कभी दरियाओं में ।
दी अज़ानें कभी योरोप के कलीशाओं में ।
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं में ।

शान आँखों में न जँचती थी जहाँदारों की
कलेमा पढ़ते थे हम छांव में तलवारों की ।

हम जो जीते थे, तो जंगों की मुसीबत के लिए
और मरते थे तेरे नाम की अज़मत के लिए ।
थी न कुछ तेग़ ज़नी अपनी हुकूमत के लिए
सर बकफ़ फिरते थे क्या दहर में दौलत के लिए ?

कौम अपनी जो ज़रोमाल-ए-जहाँ पर मरती
बुत फरोशी के तेवर बुत-शिकनी क्यों करती ?

टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे
पाँव शेरों के भी मैदां से उखड़ जाते थे ।
तुझ से हर कश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे
तेग क्या चीज है, हम तोप से लड़ जाते थे ।

नक़्श तौहीद का हर दिल पे बिठाया हमने
तेरे ख़ंज़र लिए पैग़ाम सुनाया हमने ।

तू ही कह दे के, उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किसने?
शहर कैसर का जो था, उसको किया सर किसने?
तोड़े मख़्लूक ख़ुदाबन्दों के पैकर किसने?
काट कर रख दिये कुफ़्फ़ार के लश्कर किसने?

किसने ठंडा किया आतिशकदा-ए-ईरां को ?
किसने फिर ज़िन्दा किया दज़तराए-ए-यज़दां को ?

कौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुई ?
और तेरे लिए जहमतकश-ए- पैकार हुई ?
किसकी शमशीर जहाँगीर, जहाँदार हुई ?
किसकी तक़दीर से दुनिया तेरी बेदार हुई ?

किसकी हैमत से सनम सहमे हुए रहते थे ?
मुँह के बल गिरके 'हु अल्लाह-ओ-अहद' कहते थे ।

आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
हिब्ला रूहों के ज़मीं बोश हुई क़ौम-ए-हिजाज़ ।
एक ही सम्त में खड़े हो गए महमूद -ओ- अयाज़
न कोई बन्दा रहा, और न कोई बन्दा नवाज़ ।

बन्दा ओ साहिब ओ मोहताज़ ओ ग़नी एक हुए
तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए ।

महफिल-ए-कौन-ओ मकामे सहर-ओ-शाम फ़िरे
महल-ए-तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-जाम फिरे ।
कोह-में दश्त में लेकर तेरा पैग़ाम फिरे
और मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे ?

दश्त-तो-दश्त हैं, दरिया भी न छोड़े हमने
दहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने ।

सफ़ा-ए-दहर से क़ातिल को मिटाया हमने
दौर-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने ।
तेरे काबों को जबीनों पे बसाया हमने
तेरे क़ुरान को सीनों से लगाया हमने ।

फिर भी हमसे ये ग़िला है कि वफ़ादार नहीं ?
हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं ।

उम्मतें और भी हैं, उनमें गुनहगार भी हैं
हिज़ वाले भी हैं, मस्त-ए-मय-ए-पिन्दार भी हैं ।
इनमें काहिल भी है, ग़ाफ़िल भी हैं, हुशियार भी है
सैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार भी है ।

रहमतें हैं तेरी अगियार के काशानों पर
बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर ।


बुत सनमख़ानों में कहते मुसलमान गए
है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए ।
मंजिले-ए-दहर से ऊँटों के गुनीख़्वान गए
अपनी बगलों में दबाए हुए क़ुरान गए ।


अंददन कुफ़्र है, एहसास तुझे है कि नहीं
अपनी तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहीं?

ये शियाकत नहीं, हैं उनके ख़ज़ाने मामूर
नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करने का शअउर
कहर तो ये है कि काफिर को मिले रुद-ओ-खुसूर
और बेचारों मुसलमानों को फ़कत वाबा-ए-हुज़ूर

अब वो अल्ताफ़ नहीं, हमपे नायास महीं
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं ?

क्यों मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब
तेरी कुदरत तो है वो, जिसकी न हद है न हिसाब
तू जो चाहे तो उठे सीना-सहरा से हुबाब
रहरवा-ए-दश्त शाली जदा-ए मौज-ए सराब

बाम-ए-अगियार है, रुसवाई है, नादारी है
क्या तेरे नाम पे मरने के एवज़ भारी है ?

रह गई अपने लिए एक खयाली दुनिया
हम तो रुक़सत हुए, औरों ने संभाली दुनिया
फ़िर न कहना कि दुनिया तोहीद से खाली हुई ।

हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे, जाम रहे ?

तेरी महफिल भी गई चाहनेवाले भी गए
शब की आहें भी गईं, जुगनूं के नाले भी गए
दिल तुझे दे भी गए अपना सिला ले भी गए
आके बैठे भी न थे और गिला ले भी गए

आए उश्शाक, गए वादा-ए-फरदा लेकर
अब उन्हें ढूँढ चराग-ए-रुख़-ज़ेबा लेकर

दर्द-ए-लैला भी वहीं, क़ैस का पहलू भी वही
नज्द के दश्त-ओ-जबल में रम-ए-आहू भी वही
इश्क़ का दिन भी वही, हुस्न का जादू भी वही
उम्मत-ए-अहद-मुरसल भी वही, तू भी वही

फ़िर ये आज गुस्तगी, ये ग़ैर-ए-सबब क्या
अपने शहदारो पर ये चश्म -ए-ग़ज़ब क्या

तुझकों छोड़ा कि रस्म-ए-अरबी को छोड़ा
बुतगरी पेशा किया, बुतशिकनी को छोड़ा
इश्क को, इश्क़ की आसुक्ताशरी को छोड़ा
रस्म-ए-सलमानो-कुवैश-ए-करनी को छोड़ा

आग तपती सी सीनों में दबी रखते हैं
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हवसी रखते हैं ।

इश्क़ की ख़ैर, वो पहली सी अदा भी न सही
ज्यादा पैमाई तस्लीम-ए-रिज़ा भी न सही ।
मुज़्तरिब दिल सिफ़त-ए-ख़िबलानुमा भी न सही
और पाबंदी ए आईना ए वफ़ा भी न सही ।

कभी हमसे कभी ग़ैरों से शनासाई है
बात कहने की नहीं, तू भी तो हरजाई है ।

सर-ए-फ़ाराँ से किया दीन को कामिल तूने
इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तूने ।
आतिश अंदोश किया इश्क़ का हासिल तूने
फ़ूँक दी गर्मी-ए-रुक्सार से महफिल तूने

आज क्यूँ सीने हमारे शराराबाज़ नहीं
हम वह शोख़ सा दामां, तुझे याद नहीं ?




(कविता ख़त्म नहीं हुई और इसमें बहुत अशुद्धियाँ है । इन्हें शब्दार्थों के साथ शीघ्र ही सुधारा जाएगा । सहयोग का स्वागत है । )