बाल कविताएँ / भाग 7 / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
मेरे मामा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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मेरे मामा
बिल्कुल गामा ।
पहने कुर्ता
और पजामा ॥
बड़े सवेरे
हैं जग जाते ।
पाँच मील तक
बीसों केले
और चपाती ।
एक बार में
चट कर जाते ॥
मेरे मामा
अच्छे मामा ॥
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आ भाई सूरज / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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आ भाई सूरज-
उतर धरा पर
ले आ गाड़ी
भरकर धूप ।
आ भाई सूरज-
बैठ बगल में
तापें हाथ
दमके रूप ।
आ भाई सूरज-
कोहरा अकड़े
तन को जकड़े
थके अलाव ।
आ भाई सूरज
चुपके-चुपके
छोड़ लिहाफ़
अपने गाँव ।
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धूप की चादर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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घना कुहासा छा जाता है ,
ढकते धरती अम्बर ।
ठण्डी-ठण्डी चलें हवाएँ ,
सैनिक -जैसी तनकर ।
भालू जी के बहुत मज़े हैं-
ओढ़ लिया है कम्बल ।
सर्दी के दिन बीतें कैसे
ठण्डा सारा जंगल ।
खरगोश दुबक एक झाड़ में
काँप रहा था थर-थर ।
ठण्ड बहुत लगती कानों को
मिले कहीं से मफ़लर ।
उतर गया आँगन में सूरज
बिछा धूप की चादर ।
भगा कुहासा पल भर में ही
तनिक न देखा मुड़कर ।
लोरी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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छोटी-छोटी बकरी
छोटी –छोटी गैया ।
गैया चराए मेरे
छोटे कन्हैया ।
छोटे-छोटे हाथ
छोटे-छोटे पाँव
ठुमक- ठुमक जाए
गोरी के गाँव ।
आँखों में दिखता
है आसमान ।
पतले –से होठों पे
छाई मुस्कान ।
किलक-किलक में
सारे गुणगान
तुतली-सी बोली में
छिपे भगवान ।
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