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रपट / नील कमल

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एक रपट लिखवाना चाहता हूँ मैं
कि मेरी देह से ग़ायब है मेरी कमीज़

मेरी कमीज़ से ग़ायब है वह गंध
जिससे मुझे पहचानता था कोई कल तक

ख़तरे में पड़ी है मेरी पहचान
आप सुनें इस ख़तरे की आहट

यूँ हुआ उस दिन कि
मैं गुज़रा फूल की मण्डी से
और चिपक-सी गई मुझसे
गंध फूलों की

रूका एक पल को
दरवाज़े पर उनके
कि दामन पर पड़े दो-चार
छींटे ख़ून के

कमोबेश रोज़
वाक़या यही होता है

कमोबेश रोज़
हादसा यही होता है ।