(21)
अयोध्यामें आनन्द
रागधनाश्री
सुनियत सागर सेतु बँधायो |
कोसलपतिकी कुसल सकल सुधि कोउ इक दुत भरत पहँ ल्यायो ||
बध्यो बिराध, त्रिसिर, खर-दूषन सूर्पनखाको रूप नसायो |
हति कबन्ध, बल-अंध बालि दलि, कृपासिन्धु सुग्रीव बसायो ||
सरनागत अपनाइ बिभीषन, रावन सकुल समूल बहायो |
बिबुध-समाज निवाजि, बाँह दैं बन्दिछोर बर बिरद कहायो ||
एक-एकसों समाचार सुनि नगर लोग जहँ तहँ सब धायो |
घन-धुनि अकनि मुदित मयूर-ज्यों, बूड़त जलधि पार-सो पायो ||
"अवधि आजु यौं कहत परसपर, बेगि बिमान निकट पुर आयो |
उतरि अनुज-अनुगनि समेत प्रभु गुर-द्विजगन सिर नायो ||
जो जेहि जोग राम तेहि बिधि मिलि, सबके मन अति मोद बढ़ायो |
भेण्टी मातु, भरत भरतानुज, क्यों कहौं प्रेम अमित अनमायो ||
तेही दिन मुनिबृन्द अनन्दित तुरत तिलकको साज सजायो |
महाराज रघुबंस-नाथको सादर तुलसिदास गुन गायो ||