दुख के दिन
अन्त हीन-
ऊँचे, उजाड़ से,
दुख के दिन
फैले पहाड़ से!
बैठे ठाले
समय ऊँघता
दिन दिन भर बजते खर्राटे,
बियाबान में
रह-रह चुभते
तेज-
अकेलेपन के काँटेय
कौन सुन रहा
इस जंगल में
चीखो कितना
गला फाड़ के!
दोपहरी-
ठहरी ठहरी सी
सुबह उदासी
शाम उदासी,
पीढ़ी भर का
दर्द समेटे
रात ले रही ऊबासाँसी,
घुटन और
चुप्पी को तोड़ें
चुप्पी से तो
बेहतर ही है
आओ हम रोयें दहाड़ के!
जीवन की
अंधी सुरंग में
अवसादों के
बिछे पलीते,
एक एक पल
ऐसे बीते
जैसे सौ
मन्वंतर जीते,
दफ्तर के
ऊँचे परकोटे
परकोटे-
लगते तिहाड़ से!