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बस यूँ ही मैंने / शशि पाधा

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बस यूँ ही मैंने पूछ लिया था...

जीवन पथ पर चलते चलते
धूप छाँव से केलि करते
टूटेंगे जब सम्बल सारे
बन पाओगे सबल सहारे ?

बस यूँ ही मैंने पूछा था...

वीणा की तारों को छेडूँ
छेड़ न पाऊँ राग कभी जब
छू कर मेरे होठों को तब
गा पाओगे गान वही तुम ?

यूँ ही मैंने पूछ लिया था--

सागर के मँझधार हो नैया
खो जाये पतवार कभी तो
बाँध के बाहों के घेरे में
ले जाओगे पार कभी तुम?

बस यूँ ही मैंने पूछ लिया था...

बिखरे सपनों की घड़ियों में
टूटे मन की आस कभी तो
अवसादों के लाँघ के पहरे
दे दोगे विश्वास कभी तुम?

बस यूँ ही मैंने पूछ लिया था...

और मेरे कांधे को छू कर
तुमने ऐसे देखा था
मौन तेरे नयनों में मैंने
सारे उत्तर पढ़ डाले थे।

बस यूँ ही मैंने पूछ लिया था...