भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन तो बसता अपने देश / शशि पाधा

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:27, 10 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशि पाधा }} {{KKCatKavita}} {{KKCatGeet}} <poem> तन जो हो सुदूर कहीं भी, …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तन जो हो सुदूर कहीं भी,
मन तो बसता अपने देश
वेद, पुराण, श्रुतियों क देश
दर्शन और स्मृतियों का देश

उन्नत मस्तक शोभित हिमगिरी
सागर चरण पखारे जिसका
पावन नदियाँ आँचल सींचें
केसर भाल सँवारे जिसका

माँ सी धरती, पिता हैं अम्बर
तरूवर देव समान यहाँ
सूर्य चाँद और ग्रह नक्षत्र
सब का ही सम्मान यहाँ

गुरुवर सा हर पल संग रहता
भगवद गीता का संदेश
योग ध्यान, निग्रह और संयम
ॠषियों मुनियों का उपदेश

षट ऋतुयों का हो अभिनन्दन
ऐसी धरती और कहाँ
चन्दन गर्भित पवन सुवासित
राग- रागिनी नाद यहाँ

सत्य अहिंसा की भूमि यह
गौतम और गांधी का देश
साहस और बलिदान की मूरत
वीरों की गाथा का देश

यहीं है गीता, यहाँ रामायण
मीरा के मृदु गीत यहाँ
जन-जन गाये सूर कबीरा
भक्ति का संगीत यहाँ

धर्म, ज्ञान विज्ञान संवाहक
और नहीं कोई ऐसा देश
समता और समभाव प्रचारक
जग में मेरा भारत देश

तेरी माटी कुंकुम चंदन
मस्तक रोज़ लगाऊँ मैं
जहाँ रहूँ ,जिस छोर भी जाऊँ
तुझको शीश नवाऊँ मैं

मेरे तो मन मंदिर बसता
देव समान मेरा देश
पूजा अर्चन का यह देश
भक्ति वन्दन का यह देश ।