जवाब-ए-शिकवा / इक़बाल
टिप्पणी: जवाब ए शिकवा १९१२ में लिशी गई थी जो १९०९ में अल्लामा अक़बाल द्वारा लिखी पुस्तक शिकवा का जवाब है । शिकवा में उन्होंने अल्लाह से मुसलमानों की स्थिति के बारे में शिकायत की थी और इसकी वजह के कई सवाल पूछे थे । जवाब-ए-शिकवा में उन्होंने इन सवालों के जवाब देने की कोशिश की है ।
दिल से जो बात निकलती है असर रखती
गर नहीं ताकत-ए-परवाज़, रखती है
आग से उठती है गर्दू पे गिजर रखती है
पीर ए गरदू ने कहा
बोले तय्यारे
अहल-ए-शमीं है कोई
बोसीदा यहीं है कोई
जन्नत से निकाला हुआ इंसा समझा
तासरे
इस क़दर शोख के अल्लाह
आलिम ए गैर है सामां ए रूजे कम है हाँ मगर
एश्क ए बेताब से लबरेज़ है पैमाना तेरा किस क़दर शोख जबां है दीवाना तेरा
हम सुखन कर दिया बंदों
राह दिखलाएँ किसे रहरव-ए-मंज़िल ही नहीं जिससे तामीर हो आदम की ये वो दिल ही नहीं
ढूँञने वालों को दुनिया नई देते है उम्मती
बुत शिकन उठ गए, बाक़ी जो रहे बुतगर है ङरम ए काबा नया, बुत नए तुम भी नए
वो भी दिन थे
जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था
किस क़दर तुम पे हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारे
सफ़ा-ए-दहर
थे भावा व तुम्हारे ही हाथ पर हाथ धरे क्या कहा दहर-ए-मुसलमां शिकवा अगर करे
तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं एक ही सब का नबी, दीन भी दीवान भी एक कुछ बड़ी बात थी होते मुसलमान भी एक
किसकी आँखों में समाया है दयार-ए-अगियार
मसादि में रहमतें रोजा जो करते है तो ग़रीब नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब
पुख्ता खयाली न रहीं शोला रूह-ए-बिलाली न रहीं
मस्जिदए कि नवाजी न रहे सहिब-ए-अल्ताफ-ए हिजाज़ी न रहे ।
(कविता अपूर्ण और अशुद्ध है । शीघ्र ही सुधारा जाएगा । )