`मृत्यु' क्षणिकाएँ-1/रमा द्विवेदी
१-लद गए वे दिन,जब
चंदन किसी अमीर की लाश
जलाने के काम आता था,
आज तो लोग चंदन रहना चाहते हैं,
इसलिए शव को श्मशान में नहीं ,
क्रेमीटोरियम में जलाना चाहते हैं।
२-अब गम का मरहम,
उदासी,खमोशी या
आंसू बहाना नहीं,
टेलीविजन अब
मातम तक का
मरहम बनगया है।
३-न्युक्लियर परिवार में
मातम के समय पर भी,
कुछ ढ़ाढ़स, कुछ सहानुभूति या
आत्यीयता के कुछ शब्द,
अब हमारे पास बचे कहां हैं,
सिवाय इसके, टेलीविजन देखकर,
एक दूसरे से नज़रें चुराने के सिवा।
४-हर परम्परा और ,
रीति-रिवाज का अब
सरलीकरण हो गया है,
इसलिए ही तो
अपने प्रिय के शव कोभी,
कंधे पर उठाकर,
श्मशान तक ले जाने का सफ़र,
पैदल नहीं,
गाडियों से तै हो गया है।
५-ऐसे भी लोग देखें हैं हमने,
गए थे मातम को बांटने,
घंटी बजाई,
दरवाजा खुला देखा,
सामनेवाले टी.वी. देखने में व्यस्त हैं।
६-कैसी विड़म्बना है,
पिता की अथाह संपत्ति,
पाने के लिए,
कुत्ते-बिल्ली से लड़ते हैं,
और उनकी तस्वीर पर,
चंदन का हार डालकर,
अपने हृदय के उदारीकरण की
इतिश्री कर देते हैं।