दिन जिन्दगी के यों भी गुज़र जायँ तो अच्छा
हम इस खुशी के दौर में मर जायँ तो अच्छा
यों तो न रुक सकी कभी कूची तेरा, रंगसाज!
फिर भी कभी ये हाथ ठहर जायँ तो अच्छा
मज़मा उठा-उठा है, झुकी आ रही है शाम
मेले से अब हम लौट के घर जायँ तो अच्छा
चरणों में बिछी उनके पँखुरियाँ गुलाब की
कुछ आख़िरी घड़ी में सँवर जायँ तो अच्छा