नदी बोलेगी / ज्ञान प्रकाश चौबे
मेरी चुप्पी
नदी की चुप्पी नहीं है
जंगलों में पेड़ों की तादाद
धूप की गर्मी से कम है
मेरे हिस्से की हवा
माँ के बुने स्वेटर की साँस से कम है
बादल छुपे हैं
यहीं कहीं सेमल के पीछे
मेरे हिस्से की धूप लेकर
फूल हँस रहे हैं
वो सब जानते हैं
ज़िन्दगी की एक-एक परत
टूटती उबासी
रेत के साथ गाते हुए
गई है अभी शहर से बाहर
सड़क से उतरकर पगडंडियों के साथ
कितनी तेज़ धूप है
और मेरी छाया उसके साथ है
जंगल की मुर्गाबियाँ
निकली हैं नदी की तलाश में
उनके पैरों के निशान
गुज़रें हैं उस पहाड़ से होकर
हवा से पता पूछते हुए
नदी की चुप्पी
मेरे अन्दर छिपी है पलकों के पीछे
बरबस मैं उसे ढूँढ़ लूँगा
जंगल के पीछे कहीं
कहूंगा ‘झाँ’
नदी खिलखिलाकर हँसेगी
पेड़ों के साथ झूमते हुए
निकल आएगी बादलो के पीछे से
धूप के साथ गलबहियाँ डाले हुए