भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उड़ानें / आलोक धन्वा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:15, 25 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक धन्वा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> कवि मरते हैं जैसे …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि मरते हैं
जैसे पक्षी मरते हैं
गोधूलि में ओझल होते हुए !

सिर्फ़ उड़ानें बची
रह जाती हैं

दुनिया में आते ही
क्यों हैं
जहाँ इन्तज़ार बहुत
और साथ कम

स्त्रियाँ जब पुकारती हैं
अपने बच्चों को
उनकी याद आती है !

क्या एक ऐसी
दुनिया आ रही है
जहाँ कवि और पक्षी
फिर आएँगे ही नहीं !