Last modified on 10 जुलाई 2011, at 12:23

इस लोक के इस आर्यावर्त में / शहंशाह आलम

योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:23, 10 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहंशाह आलम |संग्रह=वितान }} {{KKCatKavita‎}} <poem> इस ऋतु का कथ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इस ऋतु का कथा आरंभ भी
पुरानी तमाम दरिद्र ऋतुओं जैसा ही था

खिड़कियां थीं अपनी-अपनी जगह पर
परंतु खिड़कियों के बाहर हत्यारे थे जमा
और वे असंख्य-अनगिनत थे
जैसे सांप थे अनगिनत
अनगिनत थे चीते तेंदुए

पीठ थी लेकिन पीठ का ज़ख़्म था वैसा का वैसा
जीवित लोग थे सड़कों पर ढेरों पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में
पर जीवन झलकता नहीं था जीवन जैसा
न हंसी झलकती थी हंसी जैसी हमारी स्मृतियों में

आत्मा को थी देह की
देह को थी आत्मा की खोज
इस परिदृश्य में
और घर भी था अदृश्य
इस परिदृश्य में

शब्द थे जो मंत्र की तरह जापे नहीं जा रहे थे
दरख़्त थे जो काटे जा रहे थे निरंतर मनुष्यों की तरह
स्त्रियों में भाद्रपद की माघ-फागुन की
प्रतीक्षा नहीं थी अनाज से कंकड़ चुनते समय
न प्रार्थनाओं के प्रति उत्साह था बचा हुआ
न धान पकने के दिन का था इंतज़ार

नहाते समय युवा लड़कियां गुनगुनाती नहीं थीं
लोकगीत कोई अपने स्वप्नकुमारों के लिए

थकने से पहले ही सुस्ताने लगे थे लोग
पकने से पहले ही बुझने लगा था चूल्हा

इस लोक के इस आर्यावर्त में
सब कुछ था जैसे लड़खड़ाता हुआ
सब कुछ था जैसे दरार में समाता हुआ
सब कुछ था जैसे विपक्ष में हंसता हुआ

लानत है जो हम अपनी सभ्यता में
ऐसे दृश्यों को जी रहे थे
दुखों की संख्या बढ़ा रहे थे

झूठ को झूठ को
सिर्फ़ झूठ को गा रहे थे
निहायत झूठे आदमी की तरह।