भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विदा का समय / शहंशाह आलम

Kavita Kosh से
योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:50, 10 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहंशाह आलम |संग्रह=वितान }} {{KKCatKavita‎}} <poem> परितोष के ल…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परितोष के लिए

विदा का समय आ गया मित्र
हम ख़ूब रहे साथ
हम ख़ूब घूमे साथ

साथ खाई बाजरे की रोटी
साथ चखी पुदीने की चटनी

आओ गले लग जाओ
विदा करो तो ऐसे करो
लगे कि हमें फिर-फिर मिलना है
कहीं न कहीं
किसी न किसी शक्ल में
किसी न किसी वितान में।