भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिखर गए ठाँव / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:27, 11 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=आहत हैं वन / कुमार रवींद्…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर बहे सागर-तट
डूब रहे मछुआरे गाँव
 
जाल तने मेघों के
मेंह रहे घेर
हैं बासी मछली के
आँगन में ढेर
 
पानी में बिखर गए बसे हुए ठाँव
 
गूँगे हैं शंख
और अंधी है सीप
इन्द्रधनुष के चेहरे
लहर गई लीप
 
किस उजाड़ टापू पर उलट गई नाव
 
पाँव-तले नींव नहीं
गहरी मँझधार
ताड़-वनों में फैले
केंचुए-सिवार
 
रेत पर हवाओं के टिके नहीं पाँव