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यज्ञ गए चूक / कुमार रवींद्र

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बूढ़े देवालय में प्रतिमाएँ मूक
             सुनती हैं
           अपनी ही साँसों की हूक
 
एक कथा शंखों की
हुई बहुत दूर
पिछली उन गूँजों को
गिद्ध रहे घूर
 
कलशों पर बैठे हैं सिरफिरे उलूक
 
मकड़ी के जालों में
दीपों का दर्द
सोच-रही पोथी पर
जमी हुई गर्द
 
कहाँ गए मंत्र-सिद्ध देवता अचूक
 
अंधे देवासन पर
कौओं की बीट
फिरतीं पूजाओं पर
छिपकलियाँ ढीठ
 
भ्रष्ट हुए अक्षत सब - यज्ञ गए चूक