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सरस सुधियाँ / रविशंकर पाण्डेय

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सरस सुधियाँ
लौटती पनिहारिनों सी
तृषित ये
संवेदना के तंतु मेरे
आज बौराया हुआ मन
तोड़ देगा
कसमसाती बंदिशों के
तंग घेरे !

चाह तेरी जमीं
चेतन ऊतकों में
शैवाल तह ज्यों
पोखरे के हरे जल में
घाट का पत्थर बनी
जो चन्द भूलें
क्यों न उनको चलो फिर
 लायें अमल में,
नीड़ का निर्माण
फिर होने लगा है
आज फिर चहके
परिंदों के बसेरे!
गीतगोविन्दम सुनायें
युगल स्वर में
जिंन्दगी है क्षणिक
यह उपदेश कर दें
एक चढ़ती वयस को
चन्दन बदन को
एक कर के-
शेष जीवन शेष कर दें,
दो पलों का
चलो अक्षयवट उगा लें
सह सकें जो काल के
दुर्दम थपेरे!

ढल गया है चाँद
पुरवी ललौछे को
बंदगी की
धूर के बंसवार ने,
मनचले कुछ पल
चुराकर जीत से
चिरंजीवी उमर
गढ़ ली हार ने,
अंगुलियों पर-
आज, कल,परसों, जिये हैं
आँख बनकर सहे हैं-
संध्या -सबेरे!