भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बसंत गीत / रविशंकर पाण्डेय
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:27, 16 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रविशंकर पाण्डेय |संग्रह=अंधड़ में दूब / रविशंकर …)
बसंत गीत
तन रंगाये मन रंगाये,
लाल पीले हरे रंगो में-
रंगे दिन लौट आये!
तरल मौसम की
सरल संवेदना पा
अधमरा दिन जी उठा
फिर से विचारा,
शीत से भयभीय मन
क्या सह सकेगा?
इस गुलाबी ठंड का
अपनत्व प्यारा,
यक्षिणी के खुले
वेणीबंध जो यह
बौर की खुशबू
हवा में गहगहाये!
हुआ निर्वासित
विरागी मन विचारा
मनचले बीते पलों के
गाँव तेरे,
ऐक नीली नदी सी
तुम बह चली हो
अब न शायद
टिक सकेंगे पाँव मेरे,
सूद में हमको मिली थी
जो कभी
उस जवानी के
पुनः ऋण लौट आये।
उधर सरसों के हुए हैं
हाथ पीले
धूप के लो इधर दिखते
पाँव भारी
आज कुछ अनहोनियाँ
करके रहेंगी
धमनियों में धुली
फागुन की खुमारी,
टूटती हैं सभी
झूठी वर्जनाएँ
आज होली में ठिठोली के
गये दिन लौट आये।