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हम तो काँटे ही चुनते हैं / गुलाब खंडेलवाल
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हम तो काँटे ही चुनते हैं
मिले फूल-फल उन्हें, लोग जिनकी पिकध्वनि सुनते हैं
जैसा अवसर वैसा गायें
श्रोता क्यों ताली न बजायें!
हम तो बस उनकी रचनायें
पढ़कर सिर धुनते है
तिकड़म, दलबंदी, विज्ञापन
दंभ, चाटुकारी, जन-रंजन
धन्य वही कवि इनसे प्रतिक्षण
जो ताने बुनते हैं
हम तो काँटे ही चुनते हैं
मिले फूल-फल उन्हें, लोग जिनकी पिकध्वनि सुनते हैं