सिंह की संतान का यह अर्थ है,
देश – गौरव – मान के हित प्राण दें।
मर मिटें, जब प्राण सब के उड़ चलें,
तब कहीं निर्जीव यह मेवाड़ दें॥
एक योधा ने कहा, ‘सब सत्य है,
किंतु क्षण भर सोच लेना चाहिए।
फिर नियत कर तिथि भयंकर युद्ध की,
बाल अरि के नोच लेना चाहिए॥
काम इतना बढ़ गया उस श्वान का,
सिंहनी से ब्याह करना चाहता।
राजपूतों के लिए यह मौत है,
वंश का मुँह स्याह करना चाहता’॥
बात कुछ ने मान ली, कुछ मौन थे,
फिर लगी होने बहस दरबार में।
एक राय न हो रहे थे वीर सब,
इस लिए थी देर रण - हुंकार में॥
बोला वह पथिक यती से,
कुछ देर हो गई होगी।
रानी की रतन – विरह से
सुध सकल खो गई होगी॥
यदि मुक्त हुआ रावल तो,
आख्यान बताना होगा।
माला जप जप देरी कर
मुझको न सताना होगा॥
बोला वह, देर न होगी,
जप से क्यों घबड़ाते हो।
आस्तिक हो, नास्तिक से क्यों,
माला से दुख पाते हो॥
यदि ऐसी बात करोगे
तो कथा न कह सकता हूँ।
क्षण भर भी इस आसन पर,
जप – हीन न रह सकता हूँ॥
यह कह उठ गया पुजारी,
जलपूत कमंडलु लेकर।
भयभीत पथिक ने रोका,
शिर चलित पदों पर देकर॥
की क्षमा – याचना उसने,
गिर – गिर रो रो चरणों पर।
चल पड़ी कथा बलिहारी,
दोनों के अश्रु - कणों पर॥
माधव – विद्यालय, काशी
कार्त्तिकी, संवत १९९७