'देखना था यह दिन भी आगे
क्या कम था वनवास वही जब प्राण नृपति ने त्यागे!'
बोली कौसल्या लक्ष्मण से
'वह दुख भी भूली थी मन से
फिर यह बिजली गिरी गगन से
पाप कहाँ के जागे!
'क्या-क्या नहीं विपत्ति उठायी!
सीता ज्यों-त्यों घर थी आयी
पर अब स्वामी से ठुकरायी
शरण कहाँ वह माँगे!
'चौदह वर्ष कटे पल गिन-गिन
कैसे मैं काटूँगी ये दिन!
अभी शेष था साँसों का ऋण
अटके प्राण अभागे!'
'देखना था यह दिन भी आगे
क्या कम था वनवास वही जब प्राण नृपति ने त्यागे!'