तुम्हें एक
दरख्त की तरह
सीने से लगाए
खड़ी रही थी
मैं
तुम चलना
नहीं चाहते थे
और मैं रूकना
इसी असमंजस में
कभी चलती रही
कभी थमती रही
मगर कदमों ने
तुम्हारा साथ न दिया
मेरी आंखों में
तुम्हारे पतझड़
के बाद
फिर कुछ न रहा
मगर हरीतिमा
दरवाजे पर
दे जाती है
हर बार एक
दस्तक