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सपनों की सेज / जितेन्द्र सोनी
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उगते सूरज के साथ
झोंपड़पट्टी से निकले
अधनंगे शरीर ने
उम्मीदों का सहारा पाकर
कुछ बनने की चाह में
स्वयं को झोंक दिया
सीमेंट के जंगलों में
शरीर का रोम - रोम
श्रम-स्वेद से चमकता हुआ
मशीन की तरह
जुटा रहा
और शाम तक
छल लिया गया
वह अधनंगा शरीर
हमेशा की तरह
क्योंकि
अपने पसीने से सींचकर
उसने
वैभव का कद
और ऊँचा कर दिया
फिर याचक की तरह
हाथ फैलाकर
कुलबुलाती आंतों के लिए
खैरात की बैसाखी लेकर
सुबह के सपनों को
कंधा देने के बाद
वह
अधनंगा शरीर
रात को आकर
जमीन पर सो गया
ताकि फिर अगली सुबह
सजा सके
सपनों की सेज !